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________________ 103. जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे। सामाइयं तु तिविहं करेमि सव्वं णिराया।। किंचि दुच्चरितं सव्वं तिविहेण वोसरे सामाइयं (ज) 1/1 सवि अव्यय (अम्ह) 6/1 स (दुच्चरित्त) 2/1 (सव्व) 2/1 सवि (तिविह) 3/1 वि (वोसर) व 1/1 सक (सामाइय) 2/1 अव्यय (तिविह) 2/1 वि (कर) व 1/1 सक (सव्वं) 2/1 द्वितीयार्थक अव्यय (णिरायार) 2/1 वि कुछ भी मेरा बुरा आचरण सबको तीन प्रकार से छोड़ता हूँ सामायिक को और तिविह करेमि तीन प्रकार की करता हूँ पूर्णरूप से सव्वं णिरायारं अन्वय- जं किंचि मे दुच्चरित्तं सव्वं तिविहेण वोसरे तु तिविहं सामाइयं सव्वं णिरायारं करेमि। अर्थ- (अतः) जो कुछ भी मेरा बुरा आचरण (है) (उस) सबको (मैं) तीन प्रकार (मन-वचन-काय) से छोड़ता हूँ और तीन प्रकार की सामायिक (चारित्र) को (अंतरंग में स्थित होकर) पूर्णरूप से शुद्ध करता हूँ। 1. प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पिशल, पृ.सं. 676 । 2. चारित्रः सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि। (40) नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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