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145. दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं जो कुणइ सो वि अण्णवसो।
मोहंधयारववगयसमणा कहयंति एरिसय।।
दव्वगुणपज्जयाणं
द्रव्य, गुण और पर्यायों में मन को
[(दव्व)-(गुण)(पज्जय) 6/27/2] (चित्त) 2/1 (ज) 1/1 सवि (कुण) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि
लगाता है वह
अव्यय
अण्णवसो मोहंधयारववगय
समणा
[(अण्ण)सवि-(वस) 1/1 वि] अन्य के वश [(मोह)-(अंधयार)- मोहरूपी अंधकार (ववगय) वि
से रहित श्रमण (समण) 1/2] (कहयंति) व 3/2 सक अनि कहते हैं (एरिसय) 2/1 वि इसको
कहयंति एरिसयं
अन्वय- जो दव्वगुणपज्जयाणं चित्तं कुणइ सो वि अण्णवसो मोहंधयारववगयसमणा एरिसयं कहयंति । .. अर्थ- जो (श्रमण) द्रव्य, गुण, पर्यायों में मन को लगाता है वह भी अन्य
के वश (है)। मोहरूपी अंधकार से रहित श्रमण इसको कहते हैं।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरण 3-134)
नियमसार (खण्ड-2)
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