SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 146. परिचत्ता परभावं अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं । अप्पवसो सो होदि ह तस्स दु कम्मं भणंति आवासं ॥ परिचत्ता परभावं . अप्पाणं झादि णिम्मलसहावं अप्पवसो सो होदि हु तस्स hco दु कम्म भति आवासं (परिचत्ता) संकृ अनि [ ( पर) वि - (भाव) 2 / 1] ( अप्पाण) 2 / 1 (88) (झा) व 3 / 1 सक [ ( णिम्मल) वि - (सहाव ) 2/1 fa] [ ( अप्प ) - ( वस) 1 / 1वि] (त) 1/1 सवि (हो) व 3/1 अक अव्यय (त) 6/1 सवि अव्यय (कम्म) 1 / 1 (भण) व 3/2 सक (आवास) 1/1 वि छोड़कर परभाव को निज (आत्मा) को ध्याता है निर्मल स्वभाववाले आत्मा के वश वह होता है निश्चय ही उसके ही कर्म कहते हैं आवश्यक अन्वय- परभावं परिचत्ता णिम्मलसहावं अप्पाणं झादि सो अप्पवसो होदि हु तस्स दु आवासं कम्मं भणति । अर्थ - (जो ) (साधु) परभाव को छोड़कर निर्मल स्वभाववाले निज (आत्मा) को ध्याता है वह (निश्चय ही ) आत्मा के वश होता है (तथा) उसके ही (ध्यानस्वरूप ) आवश्यक कर्म ( है ) (जिनेन्द्र देव ) ( ऐसा ) कहते हैं। नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy