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________________ 147. आवासं जह इच्छसि अप्पसहावेसु कुणदि थिरभाव। तेण दु सामण्णगुणं संपुण्णं होदि जीवस्स॥ आवासं (आवास) 2/1 वि अव्यय जह इच्छसि अप्पसहावेसु आवश्यक को जैसे चाहते हो आत्म-स्वभाव में करता है स्थिरभाव उससे कुणदि कर थिरभावं (इच्छ) व 2/1 सक [(अप्प)-(सहाव) 7/2] (कुण) व 3/1 सक [(थिर) वि-(भाव) 2/1] (त) 3/1 सवि अव्यय [(सामण्ण)-(गुण) 1/1] (संपुण्ण) 1/1 वि (हो) व 3/1 अक (जीव) 6/1 सामण्णगुणं संपुण्णं श्रमणता-गुण पूर्ण होता है जीव का होदि जीवस्स अन्वय- जह आवासं इच्छसि अप्पसहावेसु थिरभावं कुणदि तेण दु जीवस्स सामण्णगुणं संपुण्णं होदि। अर्थ- जैसे (यदि) (तुम) (ध्यान स्वरूप) आवश्यक को चाहते हो तो (तुम) आत्म-स्वभाव में स्थिरभाव (करो), (क्योंकि) (जो स्थिरभाव) करता है (तो) उससे (उस) जीव का श्रमणता-गुण पूर्ण होता है। नियमसार (खण्ड-2) (89)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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