________________
119. अप्पसरूवालंबणभावेण दुसव्वभावपरिहारं।
सक्कदि काईं जीवो तम्हा झाणं हवे सव्वं।
अप्पसरूवालंबण- [(अप्पसरूव)+(आलंबणभावेण भावेण)]
[(अप्प)-(सरूव)(आलंबण)-(भाव) 3/1]
अव्यय सव्वभावपरिहारं [(सव्व) सवि-(भाव)
(परिहार) 2/1] सक्कदि (सक्क) व 3/1 अक
(का) हेकृ जीवो
(जीव) 1/1 तम्हा झाणं
(झाण) 2/1-7/1
(हव) व 3/1 अक सव्वं
(सव्वं) 2/1 द्वितीयार्थक अव्यय
आत्म-स्वरूप के आलंबन होने से पादपूरक सभी भावों का परिहार समर्थ है करने के लिए जीव इसलिए ध्यान में घटित होता है पूर्णरूप से
कादं
अव्यय
अन्वय- अप्पसरूवालंबणभावेण दु जीवो सव्वभावपरिहारं कादं सक्कदि तम्हा सव्वं झाणं हवे।
अर्थ- आत्म-स्वरूप के (मात्र) आलम्बन होने से जीव सभी (बहिर्मुखी) भावों का परिहार करने के लिए समर्थ है, इसलिए (सभी बहिर्मुखी भावों का परिहार) पूर्णरूप से ध्यान में घटित होता है।
1.
कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
(58)
नियमसार (खण्ड-2)