________________
170. णाणं जीवसरूवं तम्हा जाणेइ अप्पगं अप्पा । अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादो होदि विदिरित्तं ।।
णणं
जीवसरूवं
तम्हा
जाणे
अप्पगं
अप्पा
अप्पाणं
ण
वि
जादि
अप्पादो
होदि
विदिरित्तं'
1.
( णाण) 1 / 1
[ (जीव ) - ( सरूव) 1 / 1]
अव्यय
(जाण) व 3 / 1 सक
(अप्प ) 2/1
'ग' स्वार्थिक
( अप्प ) 1 / 1
( अप्पाण) 2 / 1
अव्यय
अव्यय
(जाण) व 3 / 1 सक
(अप्प ) 5 / 1
(हो) व 3/1 अक
(विदिरित्त ) 1 / 1 वि
नियमसार (खण्ड-2)
'विदिरित्त' के स्थान पर 'वदिरित्तं' होना चाहिए ।
ज्ञान
आत्मा का स्वरूप
इसलिए
जानता है
आत्मा को
अन्वय- जीवसरूवं णाणं तम्हा अप्पा अप्पगं जाणेइ अप्पाणं ण वि जाणदि अप्पादा विदिरित्तं होदि ।
अर्थ - आत्मा का स्वरूप ज्ञान (है) इसलिए आत्मा आत्मा को जानता है । (यदि) (ज्ञान) आत्मा को नहीं जानता है (तो) (वह) आत्मा से भिन्न होता है अर्थात् भिन्न सिद्ध होगा।
आत्मा
आत्मा को
नहीं
पादपूरक
जानता है
आत्मा से
होता है
भिन्न
(113)