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157. लम॑णं णिहि एक्को तस्स फलं अणुहवेइ सुजणत्ते।
तह णाणी णाणणिहिं भुंजेइ चइत्तु परतत्ति।।
लभ्रूणं *णिहि एक्को
पाकर निधि
कोई
तस्स
उसके परिणाम
अणुहवेइ
(लणं) संकृ अनि (णिहि) 2/1 (एक्क) 1/1 वि (त) सवि 6/1 (फल) 2/1 (अणुहव) व 3/1 सक (सु-जणत्त) 7/1 अव्यय (णाणि) 1/1 वि [(णाण)-(णिहि) 2/1] (भुंज) व 3/1 सक (चअ) संकृ [(पर) वि-(तत्ति) 2/1]
भोगता है मनुष्य अवस्था में ।
सुजणत्ते
तह
वैसे
णाणी णाणणिहिं
भुंजेइ
ज्ञानी ज्ञाननिधि को भोगता है छोड़कर पर से उत्पन्न तुष्टि को
चइत्तु
परतत्तिं
अन्वय- एक्को णिहि लणं तस्स फलं सुजणत्ते अणुहवेइ तह णाणी परतत्तिं चइत्तु णाणणिहिं भुंजेइ।
__ अर्थ- (जैसे) कोई (व्यक्ति) (बाह्य) निधि को पाकर उसके परिणाम को मनुष्य अवस्था में भोगता है वैसे ही ज्ञानी पर से उत्पन्न तुष्टि को छोड़कर (अंतरंग) ज्ञाननिधि को (मनुष्य अवस्था में) भोगता है।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) संपादक द्वारा अनूदित
नोटः
नियमसार (खण्ड-2)
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