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156. णाणाजीवा णाणाकम्मंणाणाविहं हवे लद्धी।
तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं वज्जिज्जो।
णाणाजीवा णाणाकम्म
णाणाविहं
लद्धी तम्हा वयणविवादं सगपरसमएहिं
(णाणाजीव) 1/2 अनेक प्रकार के जीव (णाणाकम्म)
अनेक प्रकार के कर्म 2/1-1/2] (णाणाविहा) 2/1-1/2 वि अनेक प्रकार की (हव) व 3/2 अक होती हैं (लद्धि) 1/2
लब्धियाँ अव्यय
इसलिए [(वयण)-(विवाद) 2/1] शब्द-विवाद [(सग) वि-(पर) वि- स्व और परसिद्धान्त (समअ) 3/1+7/1] (के विषय) में (वज्जिज्ज) विधिकृ 1/1 अनि छोड़ देना चाहिये
वज्जिज्जो
अन्वय- णाणाजीवा णाणाकम्मं लद्धी णाणाविहं हवे तम्हा सगपरसमएहिं वयणविवादं वज्जिज्जो।
__ अर्थ- जीव अनेक प्रकार के (हैं) (उनके) कर्म अनेक प्रकार के (हैं) (तथा) (उनके) लब्धियाँ अनेक प्रकार की होती हैं। इसलिए (परमार्थ में लगे हुए साधक को) स्व और परसिद्धान्त (के विषय) में (लोगों के साथ) शब्द-विवाद छोड़ देना चाहिये।
णाणा- समास के आरंभ में विशेषण के रूप में प्रयोग होता है। प्रथमा विभक्ति के स्थान पर कभी-कभी द्वितीया विभक्ति होती है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137 वृत्ति) कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर तृतीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137)
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नियमसार (खण्ड-2)