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155. जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादिय परीक्खऊण फुडं।
मोणव्वएण जोई णियकज्जं साहए णिच्च॥
जिणकहियपरमसुत्ते [(जिण)-(कहिय) भूकृ- जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे (परम) वि-(सुत्त) 7/1] गये प्राथमिक/प्रधान
सूत्र में पडिकमणादिय* [(पडिकमण)+(आदि)]
[(पडिकमण)-(आदिय) 2/1] प्रतिक्रमण आदि
'य' स्वार्थिक परीक्खऊण (परीक्ख) संकृ
परीक्षा करके अव्यय
प्रकटरूप से मोणव्वएण [(मोण)-(व्वय) 3/1] मौनव्रत से (जोइ) 1/1
योगी [(णिय) वि-(कज्ज) 2/1] निजकार्य को
(साह) व 3/1 सक संपन्न करता है णिच्चं
अव्यय
जोई
णियकज्ज साहए
सदैव
. अन्वय- जिणकहियपरमसुत्ते पडिकमणादि य फुडं परीक्खऊण जोई मोणव्वएण णियकज्जं णिच्चं साहए।
___ अर्थ- जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये प्राथमिक/प्रधान सूत्र (परमागम) में (दिए गए) प्रतिक्रमण आदि की प्रकटरूप से परीक्षा करके योगी मौनव्रत से (नियम से किये जानेवाले) निजकार्य को सदैव संपन्न करता है।
प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517)
नियमसार (खण्ड-2)
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