________________
140. उसहादिजिणवरिंदा एवं काऊण जोगवरभत्तिं । णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा धरु जोगवरभत्तिं ।।
उसहादिजिणवरिंदा [(उसह) + (आदिजिणवरिंदा)] [(उसह) - (आदि) -
(जिणवरिंद) 1/2 ]
एवं
काऊण
अव्यय
(का) संकृ
[(जोग) - (वर) वि
(भत्ति) 2/1]
णिव्वुदिसुहमावण्णा [ ( णिव्वुदिसुहं) + (आवण्णा)]
णिव्वुदिसुहं [ ( णिव्वुदि) - ]
(सुह) 2 / 1
आवण्णा (आवण्ण)
भूक 1/2 अनि
अव्यय
( धर + 3 ) विधि 2 / 1 सक
('उ' प्रत्यय अपभ्रंश का है) [(जोग)-(वर) वि(भत्ति) 2/1]
गवरभत्तिं
तम्हा
धरु
जोगवरभत्तिं
ऋषभ आदि अरहंतों
ने
(81)
इस तरह
करके
उत्तम योगभक्ति
निर्वाणसुख
प्राप्त किया
इसलिए
धारण करो
उत्तम योगभक्ति
अन्वय- उसहादिजिणवरिंदा एवं जोगवरभत्तिं काऊण णिव्वुदिसुहमावण्णा तम्हा जोगवरभत्तिं धरु ।
अर्थ - ऋषभ आदि अरहंतो ने इस तरह उत्तम योगभक्ति करके निर्वाणसुख प्राप्त किया (है), इसलिए (तुम) (भी) उत्तम योगभक्ति धारण करो ।
नियमसार (खण्ड-2)