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139. विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जोण्हकहियतच्चेसु।
जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सो हवे जोगो॥
विवरीयाभिणिवेसं [(विवरीय)+(अभिणिवेसं)]
[(विवरीय) वि-(अभिणिवेस) विपरीत आग्रह को
2/1] परिचत्ता (परिचत्ता) संकृ अनि छोड़कर जोण्हकहियतच्चेसु [(जोण्ह)-(कहिय) भूकृ- जिनेन्द्रदेव कथित
(तच्च) 7/2] तत्त्वों में
(ज) 1/1 सवि झुंजदि (मुंज) व 3/1 सक
लगाता है अप्पाणं (अप्पाण) 2/1 निज को णियभावो [(णिय) वि-(भाव) 1/1] निजभाव
(त) 1/1 सवि (हव) व 3/1 अक (जोग) 1/1
जो
:
जोगो
योग
अन्वय- विवरीयाभिणिवेसं परिचत्ता जो जोण्हकहियतच्चेसु अप्पाणं जुंजदि सो णियभावो जोगो हवे।
अर्थ- विपरीत आग्रह को छोड़कर जो (साधु) जिनेन्द्रदेव कथित तत्त्वों में निज को लगाता है (उसका) वह निजभाव योग है।
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नियमसार (खण्ड-2)