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88. चत्ता अगुत्तिभावं तिगुत्तिगुत्तो हवेइ जो साहू।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा।।
चत्ता अगुत्तिभावं
तिगुत्तिगुत्तो
(चत्ता) संकृ अनि
छोड़कर [(अगुत्ति) वि-(भाव) 2/1] मन-वचन-काय के
असंयम भाव को (तिगुत्तिगुत्त) 1/1 वि मन-वचन-काय की
निर्दोष प्रवृत्तिवाला (हव) व 3/1 अक होता है (ज) 1/1 सवि (साहु) 1/1
साधु (त) 1/1 सवि (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है . (पडिकमणमअ) 1/1 वि आत्मध्यान से युक्त (हव) व 3/1 अक
होता है अव्यय
क्योंकि
पडिकमणं
उच्चइ
पडिकमणमओ
जम्हा
अन्वय- जो साहू अगुत्तिभावं चत्ता तिगुत्तिगुत्तो हवेइ सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे।
अर्थ- जो साधु मन-वचन-काय के असंयम भाव को छोड़कर मनवचन-काय की निर्दोष (अंतरंग) प्रवृत्तिवाला होता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि (वह) (उस समय) आत्मध्यान से युक्त होता है। (24)
नियमसार (खण्ड-2)