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________________ 87. मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले जो दु साहू परिणमदि । सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा ॥ मोत्तूण सल्लभावं णिस्सल्ले 后 साहू परिणमदि सो पडणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा (मोत्तूण) संकृ अनि [(सल्ल) - (भाव) 2 / 1] (णिस्सल्ल) 7/1 वि (ज) 1 / 1 सवि अव्यय ( साहु) 1 / 1 (परिणम) व 3 / 1 अक (त) 1/1 सवि (पडिकमण) 1/1 (उच्च) व कर्म 3 / 1 अनि ( पडिकमणमअ) 1 / 1 वि (हव) व 3 / 1 अक अव्यय छोड़कर शल्यभाव को शल्यरहित (स्व-स्वरूप) में जो पादपूरक साधु रूपान्तरित होता है वह प्रतिक्रमण कहा जाता है आत्मध्यान से युक्त होता है क्योंकि अन्वय- जो दु साहु सल्लभावं मोत्तूण णिस्सल्ले परिणमदि सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे। अर्थ- जो साधु शल्य ( मायाचार, देहतादात्म्यभाव तथा भोगों की आकांक्षारूप) भाव को छोड़कर (अंतरंग में स्थित होकर) शल्यरहित ( स्वस्वरूप) में रूपान्तरित होता है वह प्रतिक्रमण ( करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि वह (इस प्रकार) आत्मध्यान से युक्त होता है । नियमसार (खण्ड-2) (23)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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