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________________ 89. मोत्तूण अट्टरुदं झाणं जो झादि धम्मसुक्कं वा। सो पडिकमणं उच्चइ जिणवरणिहिट्ठसुत्तेसु॥ जो झादि मोत्तूण (मोत्तूण) संकृ अनि छोड़कर अट्टरुई [(अट्ट) वि-(रुद्द) 2/1] आर्त और रौद्र झाणं (झाण) 2/1 ध्यान (ज) 1/1 सवि (झा) व 3/1 सक ध्यान करता है धम्मसुक्कं [(धम्म) -(सुक्क) 2/1] धर्मध्यान और शुक्लध्यान अव्यय पादपूरक (त) 1/1 सवि पडिकमणं (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण उच्चइ (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु [(जिणवर)-(णिद्दिट्ठ) भूकृ अनि जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे (सुत्त) 7/2] हुए सूत्रों में सो वह अन्वय- जो अदृरुदं झाणं मोत्तूण धम्मसुक्कं वा झादि सो जिणवरणिद्दिट्ठसुत्तेसु पडिकमणं उच्चइ। __ अर्थ- जो आर्तध्यान (बहिर्मुखता से उत्पन्न इष्ट वियोगात्मक और अनिष्ट संयोगात्मक आदि दुख की व्याकुलता) और रौद्रध्यान (बाह्य संसार में परम-आसक्ति के कारण हिंसा, झूठ, चोरी और विषयों में लिप्त भावना) को छोड़कर धर्मध्यान और (निर्विकल्पात्मक ) शुक्लध्यान का (अंतरंग में स्थित होता हुआ) ध्यान करता है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे हुए सूत्रों में प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है। नियमसार (खण्ड-2) (25)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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