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________________ 90. मिच्छत्तपहुदिभावा पुव्वं जीवेण भाविया सुइरं। सम्मत्तपहुदिभावा अभाविया होति जीवेण॥ 91. मिच्छादसणणाणचरितं चइऊण णिरवसेसेण। सम्मत्तणाणचरणं जो भावइ सो पडिक्कमणं॥ पुवं मिच्छत्तपहुदिभावा [(मिच्छत्त)-(पहुदि) वि- मिथ्यात्व आदि भाव (भाव) 1/2] (पुव्व) 2/1→71 वि पूर्व में जीवेण (जीव) 3/1 जीव के द्वारा भाविया (भाव) भूकृ 1/2 चिन्तन किये गये सुइरं अव्यय दीर्घकाल तक सम्मत्तपहुदिभावा [(सम्मत्त)-(पहुदि) वि- सम्यक्त्व आदि भाव (भाव) 1/2] अभाविया (अभाव) भूकृ 1/2 चिन्तन नहीं किये गये होति (हो) व 3/2 अक जीवेण (जीव) 3/1 जीव के द्वारा मिच्छादसणणाण- [(मिच्छादसण)-(णाण)- मिथ्यादर्शन, चरित्तं (चरित्त) 2/1] मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को 1. कभी-कभी सप्तमी विभक्ति के स्थान पर द्वितीया विभक्ति का प्रयोग पाया जाता है। (हेम-प्राकृत-व्याकरणः 3-137) (26) नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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