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चइऊण णिरवसेसेण
छोड़कर पूर्णरूप से
(चय) संकृ (णिरवसेसेण) 3/1 तृतीयार्थक अव्यय [(सम्मत्त)-(णाण)(चरण) 2/1]
सम्मत्तणाणचरणं
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र
भावइ
आचरण करता
(ज) 1/1 सवि (भाव) व 3/1 सक (त) 1/1 सवि (पडिक्कमण) 1/1
वह
पडिक्कमणं
प्रतिक्रमण
अन्वय- पुव्वं जीवेण मिच्छत्तपहुदिभावा सुइरं भाविया सम्मत्तपहुदिभावा जीवेण अभाविया होंति जो मिच्छादसणणाणचरित्तं णिरवसेसेण चइऊण सम्मत्तणाणचरणं भावइ सो पडिक्कमणं।
अर्थ- (बहिर्मुखता के कारण) पूर्व में जीव के द्वारा मिथ्यात्वादि भाव (पर कर्तृत्व, अशुद्ध-आराधकता, देहात्मकता आदि) दीर्घकाल तक (समीचीन मानकर) चिन्तन किये गये (हैं) और सम्यक्त्व आदि (पर का अकर्तृत्व, स्वआराधकता, निज आदि) भाव जीव के द्वारा चिन्तन नहीं किये गये हैं। (अतः) जो (जीव) मिथ्यादर्शन (मिथ्याश्रद्धा), मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र को पूर्णरूप से छोड़कर (अन्तर्मुखी होकर) सम्यग्दर्शन (आत्मश्रद्धा), सम्यग्ज्ञान (आत्मज्ञान)
और सम्यक्चारित्र (आत्मचारित्र) का आचरण करता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) (है)। नियमसार (खण्ड-2)
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