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117. किं बहुणा भणिएण दु वरतवचरणं महेसिणं सव्वं।
पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ॥
बहुणा भणिएण
वरतवचरणं महेसिणं सव्वं पायच्छित्तं जाणह अणेयकम्माण खयहेऊ
अव्यय
क्या (बहुणा) 3/1 वि अनि अधिक (भण) भूकृ 3/1 कही गई से अव्यय
पादपूरक [(वर)वि-(तव)-(चरण)1/1] तपरूपी श्रेष्ठ चारित्र (महेसि) 6/2
महामुनियों का (सव्व) 1/1 सवि पूर्ण (पायच्छित्त) 1/1
प्रायश्चित्त (जाण) विधि 2/2 सक जानो [(अणेय) वि-(कम्म) 6/2] अनेक कर्मों के [(खय)-(हेउ) 1/1] क्षय का निमित्त
अन्वय- बहुणा भणिएण किं दु महेसिणं वरतवचरणं अणेयकम्माण खयहेऊ सव्वं पायच्छित्तं जाणह।
अर्थ- अधिक कही गई (बात) से क्या (लाभ)? महामुनियों का (जो) (बाह्य-अंतरंग) तपरूपी श्रेष्ठ चारित्र (है) (वह) अनेक कर्मों के क्षय का निमित्त है। (इसलिए) (वह) पूर्ण प्रायश्चित्त (निर्विकार चित्त की प्राप्ति) (है)। (तुम सब) जानो।
1. 2.
यहाँ छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘महेसीणं' के स्थान पर 'महेसिणं' किया गया है। बाह्य तप- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश। अंतरंग तप- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान।
नियमसार (खण्ड-2)
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