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________________ 116. उक्किट्ठो जो बोहो णाणं तस्सेव अप्पणो चित्तं । जो धरइ मुणी णिच्चं पायच्छित्तं हवे तस्स ।। उक्कट्ठो जो बोहो णणं तस्सेव अप्पणो चित्तं जो - धरइ मुणी णिच्वं पायच्छित्तं हवे तस्स ( उक्किड) भूक 1 / 1 अनि (ज) 1 / 1 सवि ( बोह) 1 / 1 ( णाण) 1 / 1 [(तस्स) + (एव)] तस्स (त) 6/1 सवि एव (अ) = ही ( अप्प) 6 / 1 (चित्त) 1/1 (ज) 1 / 1 सवि (धर) व 3 / 1 सक (मुणि) 1 / 1 अव्यय ( पायच्छित्त) 1 / 1 (हव) व 3 / 1 अक (त) 6/1 सवि उत्कृष्ट जो बोध ज्ञान उस ही the आत्मा का बुद्धि जो धारण करता है मुनि सदैव प्रायश्चित्त होता है उसके अन्वय- तस्सेव अप्पणो जो उक्किट्ठो बोहो चित्तं णाणं जो मुणी णिच्चं धरइ तस्स पायच्छित्तं हवे। अर्थ- उस ही (कषाय-विजयी) आत्मा का जो उत्कृष्ट बोध ( है ) (वह) (ही) बुद्धि (है) (वह) (ही) ज्ञान ( है ) । जो मुनि ( उसको) सदैव धारण करता है उसके प्रायश्चित्त होता है । ' नियमसार (खण्ड-2) (55)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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