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________________ 115. कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण मायं च। संतोसेण य लोहं जयदि खुए चउविहकसाए। कोहं खमया क्रोध को क्षमा से अहंकार को माणं समद्दवेणज्जवेण मायं (कोह) 2/1 (खमया) 3/1 अनि (माण) 2/1 [(समद्दवेण)+(अज्जवेण)] समद्दवेण (समद्दव)3/1 अज्जवेण (अज्जव) 3/1 (माया) 2/1 अव्यय (संतोस) 3/1 अव्यय (लोह) 2/1 (जय) व 3/1 सक अव्यय अव्यय [(चउविह) वि-(कसाअ) 2/2] संतोसेण अपनी नम्रता से सरलता से कपट को और संतोष से तथा लोभ को जीतता है पादपूरक इस प्रकार चार प्रकार की कषायों लोहं जयदि चउविहकसाए अन्वय-कोहं खमया माणं समद्दवेणज्जवेण च मायं य लोहं संतोसेण जयदि खु ए चउविहकसाए। अर्थ- (निर्विकार चित्त के लिए) (साधु) क्रोध को क्षमा से, अहंकार को अपनी नम्रता से और कपट को सरलता से तथा लोभ को संतोष से जीतता है। इस प्रकार चार प्रकार की कषायों को (साधु) (जीत लेता) (है)। (54) नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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