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114. कोहादिसगभावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं । पायच्छित्तं भणिदं णियगुणचिंता य णिच्छयदो ||
कोहादिसगब्भाव - [(कोह) + (आदिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए क्खयपहुदिभावणाए ) ]
[(कोह) - (आदि) - (सग) वि -
(ब्भाव) - (क्खय) - (पहुदि) वि -
( भावणा) 7 / 1]
(णिग्गहण ) 1/1 वि
(पायच्छित्त) 1/1
(भण) भूकृ 1 / 1
[(णि) वि- (गुण) -
(चिंता ) 1 / 1 ]
अव्यय
( णिच्छयदो) 5/1
पंचमी अर्थक 'दो' प्रत्यय
णिग्गहणं
पायच्छित्तं
भणिदं
णियगुणचिंता
य
णिच्छयदो
अपने क्रोध आदि
नियमसार (खण्ड-2
-2)
(विभाव) भावों के क्षय
आदि के चिंतन में
लीन होना
प्रायश्चित्त
कहा गया
निज गुणों
का चिंतन
और
निश्चयपूर्वक
अन्वय- कोहादिसगब्भावक्खयपहुदिभावणाए णिग्गहणं य णियगुणचिंता णिच्छयदो पायच्छित्तं भणिदं ।
अर्थ - अपने क्रोधादि (विभाव) भावों के क्षय आदि के चिंतन में लीन होना और (अंतरंग में स्थित होकर) निज (शुद्धात्मा के ) गुणों का चिंतन निश्चयपूर्वक प्रायश्चित्त (निर्विकार चित्त की प्राप्ति ) कहा गया ( है ) ।
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