SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 82
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 134. सम्मत्तणाणचरणे जो भत्तिं कुणइ सावगो समणो। तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्त। . सम्मत्तणाणचरणे भक्ति भत्तिं कुणइ सावगो समणो तस्स [(सम्मत्त)-(णाण)- सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान (चरण) 7/1] और सम्यक्चारित्र में (ज) 1/1 सवि (भत्ति) 2/1 (कुण) व 3/1 सक करता है (सावग) 1/1 श्रावक (समण) 1/1 श्रमण (त) 6/1 सवि अव्यय पादपूरक [(णिव्वुदि)-(भत्ति) 1/1] निर्वाणभक्ति [(होदि)+(इति)] होदि (हो) व 3/1 अक होती है इति (अ) = इस प्रकार इस प्रकार (जिण) 3/2 जिनेन्द्रदेव द्वारा (पण्णत्त) भूक 1/1 अनि कहा गया उसके णिबुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं . अन्वय- जो सावगो समणो सम्मत्तणाणचरणे भत्तिं कुणइ तस्स दु णिव्वुदिभत्ती होदि त्ति जिणेहि पण्णत्तं। अर्थ- जो श्रावक (अथवा) श्रमण सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र में भक्ति करता है उसके निर्वाणभक्ति होती है। इस प्रकार (यह) जिनन्द्रदेव द्वारा कहा गया (है)। नियमसार (खण्ड-2) (75)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy