________________
143. वहृदि जो सो समणो अण्णवसो होदि असुहभावेण।
तम्हा तस्स दु कम्मं आवस्सयलक्खणं ण हवे॥
होता है
जो
वह
होदि
असुहभावेण
(वट्ट) व 3/1 अक (ज) 1/1 सवि
(त) 1/1 सवि समणो (समण) 1/1
श्रमण अण्णवसो [(अण्ण)सवि-(वस) 1/1 वि] अन्य के वश
(हो) व 3/1 अक होता है
[(असुह) वि-(भाव) 3/1] अशुभ भाव-सहित तम्हा
इसलिए तस्स (त) 6/1 सवि
उसके अव्यय
पादपूरक (कम्म) 1/1
कर्म आवस्सयलक्खणं [(आवस्सय) वि-(लक्खण) आवश्यक लक्षणवाला
1/1 वि] अव्यय (हव) व 3/1 अक होता है
अव्यय
कम्म
नहीं
अन्वय- जो समणो असुहभावेण वदि सो अण्णवसो होदि तम्हा तस्स दु आवस्सयलक्खणं कम्मं ण हवे।
अर्थ- जो श्रमण अशुभ भाव-सहित होता है वह अन्य के वश होता है, इसलिए उसके आवश्यक लक्षणवाला (ध्यानस्वरूप) कर्म नहीं होता है। नियमसार (खण्ड-2)
(85)