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________________ 123. संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण । जो झायइ अप्पाणं परमसमाही हवे तस्स ॥ संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण जो झायइ अप्पाणं परमसमाही तस्स [(संजम) - (नियम) - (तव) 3 / 1] अव्यय नियमसार (खण्ड-2) ( धम्मज्झाण) 3 / - 1 (सुक्कझाण) 3/1 (ज) 1/1 सवि ( झा → झाय) व 3 / 1 सक - 'य' विकरण ( अप्पाण) 2 / 1 [ ( परम) वि - ( समाहि) 1/1] (हव) व 3 / 1 अक (त) 6 / 1 सवि संयम, नियम, तप से तथा धर्मध्यान से शुक्लध्यान से जो ध्याता है आत्मा को परम-समाधि घटित होती है उसके अन्वय- संजमणियमतवेण दु धम्मज्झाणेण सुक्कझाणेण जो अप्पाणं झायइ. तस्स परमसमाही हवे | अर्थ- संयम (इन्द्रिय-नियन्त्रण), नियम (नियमितता ), तप से तथा धर्मध्यान से और शुक्लध्यान से जो (साधु) आत्मा को ध्याता है उसके परमसमाधि घटित होती है। (63)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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