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________________ 97. णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव गेहए के।। जाणदि पस्सदि सव्वं सो हं इदि चिंतए णाणी॥ निजस्वभाव को नहीं णियभावं णवि मुच्चइ परभावं णेव छोड़ता है परभाव को . नहीं गेहए केइ [(णिय) वि-(भाव) 2/1] अव्यय (मुच्चइ) व 3/1 सक अनि [(पर) वि-(भाव) 2/1] अव्यय (गेण्ह) व 3/1 सक अव्यय (जाण) व 3/1 सक (पस्स) व 3/1 सक (सव्व) 2/1 सवि (त) 1/1 सवि (अम्ह) 1/1 स अव्यय (चिंत) व 3/1 सक (णाणि) 1/1 वि ग्रहण करता है थोड़ा सा जानता है देखता है जाणदि पस्सदि सव्वं सबको वह चिंतए इसप्रकार विचार करता है ज्ञानी णाणी अन्वय- णाणी इदि चिंतए णियभावं णवि मुच्चइ केइ परभावं णेव गेण्हए सव्वं जाणदि पस्सदि सो हं। अर्थ- (अन्तर्मुखी हुआ) ज्ञानी इस प्रकार विचार करता हैः (जो) (शुद्धआत्मा) निजस्वभाव को नहीं छोड़ता है (तथा) थोड़ा सा (भी) परभाव (को) ग्रहण नहीं करता है, सबको जानता-देखता है वह मैं (हूँ)। 1. यहाँ केई' के स्थान पर 'केई' होना चाहिए। (34) नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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