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172. जाणतो पस्संतो ईहापुव्वं ण होइ केवलिणो।
केवलणाणी तम्हा तेण दु सोऽबंधगो भणिदो॥
का
जाणतो पस्संतो
ईहापुव्वं
नहीं
होइ केवलिणो
केवलणाणी
तम्हा
(जाण) वकृ 1/1 जानते हुए (पस्स) वकृ 1/1 देखते हुए [(ईहा)-(पुव्व)' 1/1 वि] इच्छा से युक्त अव्यय (हो) व 3/1 अक होता है (केवलि) 6/1 वि
केवली के (केवलणाणि) 1/1 वि केवलज्ञानी अव्यय
इसलिए अव्यय
इस कारण अव्यय
पादपूरक [(सो)+(अबंधगो)] सो (त) 1/1 सवि वह अबंधगो (अबंधग) 1/1 वि अबंधक 'ग' स्वार्थिक (भण) भूकृ 1/1
कहा गया
तेण
सोऽबंधगो
भणिदो
अन्वय-जाणंतो पस्संतो केवलिणो ईहापुव्वं ण होइ तम्हा केवलणाणी तेण दु सोऽबंधगो भणिदो।
अर्थ- जानते हुए (और) देखते हुए (भी) केवली के इच्छा से युक्त (वर्तन) नहीं होता, इसलिए (वह) केवलज्ञानी (है)। इस कारण वह (कर्म का) अबंधक (भी) कहा गया (है)।
1.
समास के अन्त में होने से यहाँ 'पुव्व' का अर्थ है 'से युक्त'।
नियमसार (खण्ड-2)
(115)