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________________ 132. जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं वज्जेदि णिच्चसो। तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे॥ जो *दुगंछा घृणा (ज) 1/1 सवि (दुगंछा) 2/1 (भय) 2/1 (वेद) 2/1 भय स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद सबको सव्वं वज्जेदि णिच्चसो तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे (सव्व) 2/1 सवि (वज्ज) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि (सामाइग) 1/1 (ठा) व 3/1 अक अव्यय (केवलिसासण) 7/1 छोड़ता है सदैव उसके सामायिक स्थिर होती है इस प्रकार केवली के शासन में अन्वय- जो दुगंछा भयं वेदं सव्वं णिच्चसो वज्जेदि तस्स सामाइगं ठाइ इदि केवलिसासणे। अर्थ- जो (साधु) घृणा, भय, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद (इन) सबको सदैव छोड़ता है उसके (समभावरूप) सामायिक स्थिर होती है। इस प्रकार केवली के शासन में (कहा गया है)। . * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) (72) नियमसार (खण्ड-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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