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112. मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति।
परिकहियं भव्वाणं लोयालोयप्पदरिसीहिं।।
भाव
य) वि
मदमाणमायलोह- [(मद)-(माण)
कामवासना, अहंकार, विवज्जियभावो (माया-माय)-(लोह)- कपट और लोभरहित
(विवज्जिय) वि(भाव) 1/1] अव्यय
पादपूरक भावसुद्धि त्ति [(भावसुद्धी)+ (इति)]
भावसुद्धी (भावसुद्धि) 1/1 भावशुद्धि इति (अ) =
शब्दस्वरूपद्योतक परिकहियं (परिकह) भूकृ 1/1 कहा गया भव्वाणं (भव्व) 4/2 वि भव्यों के लिए लोयालोयप्पदरिसीहिं [(लोय)+(अलोयप्पदरिसीहि)]
[(लोय)-(अलोय)- लोक-अलोक को (प्पदरिसि) 3/2 वि] देखनेवालों के द्वारा
अन्वय- मदमाणमायलोहविवज्जियभावो दु भावसुद्धि त्ति लोयालोयप्पदरिसीहिं भव्वाणं परिकहिये।
अर्थ- कामवासना, अहंकार, कपट और लोभरहित भाव भावशुद्धि (होती है)- ऐसा लोक अलोक को देखनेवालों अर्थात् केवलज्ञानियों द्वारा भव्यों के लिए (यह) कहा गया (है)।
1.
छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु 'माया' का 'माय' किया गया है।
(50)
नियमसार (खण्ड-2)