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168. पुव्वुत्तसयलदव्वं णाणागुणपज्जएण संजुत्तं।
जो ण य पेच्छइ सम्मं परोक्खदिट्ठी हवे तस्स।
पुव्वुत्तसयलदव्वं [(पुव्व) + (उत्तसयलदव्वं)]
[(पुव्व) वि-(उत्त) भूक अनि- पूर्व में कहे गए समस्त
(सयल) वि-(दव्व) 2/1] द्रव्य को णाणागुणपज्जएण [(णाणागुण)
अनेक प्रकार की गुण (पज्जअ) 3/1] पर्यायों से संजुत्तं (संजुत्त) 1/1 वि युक्त
(ज) 1/1 सवि
जो
5 Fr
अव्यय
अव्यय
पेच्छइ
सम्म परोक्खदिट्ठी
(पेच्छ) व 3/1 सक अव्यय [(परोक्ख)-(दिट्ठि) 1/1] (हव) व 3/1 अक (त) 6/1 सवि
पादपूरक देखता है सम्यक्प्रकार से परोक्ष दर्शन होता है
हवे
तस्स
उसके
अन्वय- णाणागुणपज्जएण संजुत्तं पुव्वुत्तसयलदव्वं जो सम्मं ण य पेच्छइ तस्स परोक्खदिट्ठी हवे।
अर्थ- अनेक प्रकार की गुण-पर्यायों से युक्त पूर्व में कहे गए समस्त द्रव्य (समूह) को जो सम्यक्प्रकार से नहीं देखता है उसके परोक्ष दर्शन होता है।
नियमसार (खण्ड-2)
(111)