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167. मुत्तममुत्तं दव्वं चेयणमियरं सगं च सव्वं च।
पेच्छंतस्स दु णाणं पच्चक्खमणिंदियं होइ॥
मुत्तममुत्तं
मूर्त अमूर्त
दव्वं - चेयणमियरं
EP
और
[(मुत्त)+ (अमुत्त)] मुत्तं (मुत्त) 2/1 वि अमुत्तं (अमुत्त) 2/1 वि (दव्व) 2/1
द्रव्य को . [(चेयणं)+(इयरं)] चेयणं (चेयण) 2/1 चेतन इयरं (इयर) 2/1 वि अन्य (अचेतन) (सग) 2/1 वि . स्व को अव्यय (सव्व) 2/1 सवि सभी (पर) को अव्यय
और (पेच्छ) वकृ 6/1 देखते हुए का अव्यय
और (णाण) 1/1
ज्ञान [(पच्चक्खं)+(अणिंदियं)] पच्चक्खं (पच्चक्ख) 1/1 वि प्रत्यक्ष अणिंदियं (अणिंदिय) 1/1 वि अतीन्द्रिय (हो) व 3/1 अक होता है
सव्वं
पेच्छंतस्स
णाणं पच्चक्खमणिंदियं
अन्वय- मुत्तममुत्तं चेयणमियरं दव्वं सगं च सव्वं च पेच्छंतस्स णाणं दु पच्चक्खमणिंदियं होइ।
अर्थ- मूर्त-अमूर्त, चेतन-अन्य (अचेतन) द्रव्य को, स्व को और सभी (पर) को देखते हुए (केवली) का ज्ञान प्रत्यक्ष और अतीन्द्रिय (इन्द्रिय-रहित) होता है। (इसलिए केवली के लोकालोक प्रत्यक्ष होता है)।
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नियमसार (खण्ड-2)