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________________ 166. अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण केवली भगवं। जइ कोइ भणइ एवं तस्स य किं दूसणं होइ॥ अप्पसरूवं - पेच्छदि लोयालोयं आत्मा के स्वरूप को देखता है लोक-अलोक को नहीं केवली भगवं केवली भगवान यदि [(अप्प)-(सरूव) 2/1] (पेच्छ) व 3/1 सक [(लोय)-(अलोय) 2/1] अव्यय (केवलि) 1/1 वि (भगव) 1/1 अव्यय अव्यय (भण) व 3/1 सक अव्यय (त) 6/1 सवि अव्यय (किं) 1/1 सवि (दूसण) 1/1 (हो) व 3/1 अक EFE कहता है ऐसा उसका पादपूरक क्या दोष है अन्वय- केवली भगवं अप्पसरूवं पेच्छदि लोयालोयं ण जइ कोइ एवं भणइ तस्स य किं दूसणं होइ। अर्थ- केवली भगवान आत्मा के स्वरूप को देखते हैं, लोक-अलोक को (तादात्म्यरूप से स्व के समान) नहीं (देखते हैं)। यदि कोई ऐसा कहता है (तो) उसका क्या दोष है? नोटः संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2) (109)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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