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________________ ग्रन्थ एवं ग्रंथकार संपादक की कलम से आचार्य कुन्दकुन्द आध्यात्मिक जीवन के प्रबल समर्थक हैं। उनके लिए चार गतियों की यात्रा हेय है और सिद्ध अवस्था की ओर गमन उपादेय है। उनके अनुसार बहिर्मुखता संसार है और अन्तर्मुखता एक ऐसा कदम है जो अनन्त चतुष्टय की प्राप्ति के लिए अपरिहार्य है । अन्तर्मुखता दिव्य जीवन की ओर मनुष्य को उन्मुख करती है। बाह्य उलझनों को छोड़कर स्वभाव-विभाव के भेद का सतत अभ्यास ही अंतरंग में स्थित होने को सुलभ करता है और इससे आत्मध्यानरूपी आचरण घटित होता है। ऐसे आचरण से जहाँ आचार्य के अनुसार एक ओर चारित्रिक दोषों का शमन होता है वहाँ दूसरी ओर परम समाधि, सामायिक, निर्वाण - योगभक्ति, स्वाधीनता, केवलज्ञान तथा सिद्धावस्था की प्राप्ति भी होती है। वे चारित्रिक दोषों के शमन के लिए प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना तथा प्रायश्चित्त में वचन - उच्चारण को स्वीकार तो करते हैं, किन्तु ध्यान-प्रक्रिया को परम औषधि के रूप में मान्यता प्रदान करते हैं। ऐसा माना गया है कि मन के अचेतन स्तर से कषाएँ दोष उत्पन्न करती हैं जो ध्यान के द्वारा शीघ्र समाप्त की जा सकती हैं। 1. चारित्रिक दोषों का शमनः (i) प्रतिक्रमण (अतीत के दोषों का शमन) : जो अन्तर्मुखी साधु ध्यान में लीन हैं वे सब दोषों का परित्याग करते हैं, इसलिए ध्यान ही सब दोषों का प्रतिक्रमण कहा जाता है (93)। जो साधु मन-वचन-काय की बाह्य प्रवृत्तियों (1) नियमसार (खण्ड-2 5-2)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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