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________________ 180. णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिहा या __ण य तिण्हा व छुहा तत्थेव य होइ णिव्वाण।। इन्द्रियाँ उपसर्ग णवि * इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ मोह आश्चर्य ण न णिद्दा निद्रा और अव्यय (इंदिय) 1/2 (उवसग्ग) 1/2 अव्यय (मोह) 1/1 (विम्हिअ) 1/1 अव्यय (णिद्दा) 1/1 अव्यय अव्यय अव्यय (तिण्हा) 1/1 अव्यय (छुहा) 1/1 [(तत्थ) + (एव)] तत्थ (अ)= वहाँ एव (अ) = ही अव्यय (हो) व 3/1 अक (णिव्वाण) 1/1 पादपूरक तृषा तिण्हा णेव छुहा तत्थेव क्षुधा वहाँ ही पादपूरक होता है निर्वाण होइ णिव्वाणं अन्वय- णवि इंदिय उवसग्गा णवि मोहो विम्हिओ ण णिहा य ण य तिण्हा णेव छुहा तत्थेव य णिव्वाणं होइ। अर्थ- (जहाँ) अर्थात जिस परम आत्मा में न इन्द्रियाँ (हैं), (न) उपसर्ग (है), न मोह (है), (न) आश्चर्य (है), न निद्रा (है) और न तृषा (है), न क्षुधा (है) वहाँ ही (वह अवस्था ही) निर्वाण होता है/होती है। प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) नियमसार (खण्ड-2) (123)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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