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________________ 182. विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं च केवलं विरियं। केवलदिट्ठि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्त।। विज्जदि केवलणाणं केवलसोक्खं होता है केवलज्ञान केवलसुख (विज्ज) व 3/1 अक (केवलणाण) 1/1 (केवलसोक्ख) 1/1 अव्यय (केवल) 1/1 वि (वीरिय-विरिय) 1/1 (केवलदिट्ठि) 1/1 (अमुत्त) 1/1 वि (अत्थित्त) 1/1 (स-प्पदेसत्त) 1/1 वि और केवल वीर्य केवलदर्शन केवलं विरियं केवलदिट्टि अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं अमूर्त सत्ता प्रदेशता-युक्त अन्वय- केवलणाणं केवलदिहि केवलसोक्खं च केवलं विरियं अमुत्तं अत्थित्तं सप्पदेसत्तं विज्जदि। अर्थ- (सिद्ध भगवान के) केवलज्ञान, केवलदर्शन, केवलसुख और केवलवीर्य होता है। (वे) अमूर्त (और) प्रदेशता-युक्त (होते हैं) (तथा) (वे) सत्ता (धारण किए हुए हैं)। 1. यहां छन्द की मात्रा की पूर्ति हेतु ‘वीरिय' का 'विरिय' किया गया है। * प्राकृत में किसी भी कारक के लिए मूल संज्ञा शब्द काम में लाया जा सकता है। (पिशलः प्राकृत भाषाओं का व्याकरण, पृष्ठ 517) नियमसार (खण्ड-2) (125)
SR No.002305
Book TitleNiyamsara Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani, Shakuntala Jain
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year2015
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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