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136. मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती।
तेण दु जीवो पावइ असहायगुणं णियप्पाणं।।
मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण
कुणदि
णिव्वुदी
[(मोक्ख)-(पह) 7/1] मोक्षमार्ग में (अप्पाण) 2/1
अपने को (ठव) सकृ
स्थापित करके अव्यय
पादपूरक (कुण) व 3/1 सक
करता है (णिव्वुदि) 1/1 निर्वाण (णिव्वुदि) 2/1(अपभ्रंश रूप) (भत्ति ) 1/1
भक्ति (भत्ति ) 2/1 (अपभ्रंश रूप) (त) 3/1 सवि
उससे अव्यय
पादपूरक (जीव) 1/1
जीव (पाव) व 3/1 सक प्राप्त करता है [(असहाय) वि-(गुण) असहाय गुणवाली 2/1 वि] [(णिय) वि-(अप्पाण) 2/1] निज-आत्मा को
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पावइ असहायगुणं
णियप्पाणं
अन्वय- मोक्खपहे अप्पाणं ठविऊण य कुणदि णिव्वुदी भत्ती तेण दु जीवो असहायगुणं णियप्पाणं पावइ।
____ अर्थ- मोक्षमार्ग में अपने को स्थापित करके (जो) (शुद्धात्मा की भक्ति) करता है (वह) निर्वाणभक्ति (है)। उस (निर्वाणभक्ति) से (वह) जीव (श्रावक अथवा श्रमण) असहाय गुणवाली (स्वतन्त्र गुणवाली) निज-आत्मा को प्राप्त करता है।
अथवा अर्थ- मोक्षमार्ग में अपने को स्थापित करके (जो) निर्वाणभक्ति करता है उस (निर्वाणभक्ति) से (वह) जीव (श्रावक अथवा श्रमण) असहाय गुणवाली (स्वतन्त्र गुणवाली) निज-आत्मा को प्राप्त करता है।
नोटः संपादक द्वारा अनूदित नियमसार (खण्ड-2)
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