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85. मोत्तूण अणायारं आयारे जो दु कुणदि थिरभाव।
सो पडिकमणं उच्चइ पडिकमणमओ हवे जम्हा॥
मोत्तूण अणायारं आयारे
___
कुणदि
थिरभावं
(मोत्तूण) संकृ अनि छोड़कर (अणायार) 2/1
अनाचार को (आयार) 7/1
(स्व) आचरण में (ज) 1/1 सवि अव्यय
पादपूरक (कुण) व 3/1 सक
करता है [(थिर) वि - (भाव) 2/1] स्थिर भाव (त) 1/1 सवि
वह (पडिकमण) 1/1 प्रतिक्रमण (उच्चइ) व कर्म 3/1 अनि कहा जाता है (पडिकमणमअ) 1/1 वि आत्मध्यानमय (हव) व 3/1 अक होता है अव्यय
क्योंकि
• सो
पडिकमणं
उच्चइ
पडिकमणमओ
जम्हा
अन्वय- जो दु अणायारं मोत्तूण आयारे थिरभावं कुणदि सो पडिकमणं उच्चइ जम्हा पडिकमणमओ हवे।
___ अर्थ- जो (पर के कर्तृत्वरूप) अनाचार को छोड़कर (अंतरंग में स्थित होकर) (स्व) आचरण में स्थिर भाव करता है वह प्रतिक्रमण (करनेवाला) कहा जाता है, क्योंकि (वह) (उस समय) आत्मध्यानमय होता है। नियमसार (खण्ड-2)
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