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आरभटा संमर्दा, वर्जयितव्या च मौशली तृतीया । . .. प्रस्फोटना चतुर्थी, विक्षिप्ता वेदिका षष्ठी ॥ २६ ॥ पदार्थान्वयः-आरभडा-विपरीत प्रतिलेखना करना, सम्मदा-वस्त्रों को संमर्दन करना, य-फिर, वजेयव्वा-वर्जना चाहिए, य-तथा, मोसली-नीचे ऊपर स्पर्श करना, तइया-तीसरी, पप्फोडणा-प्रस्फोटना, चउत्थी-चौथी है, विक्खित्ता-विक्षिप्ता रूप, पांचवीं है, वेइया-वेदिका, छट्ठी-छठी है।
मूलार्थ-आरभटा, संमर्दा, मोसली, प्रस्फोटना, विक्षिप्ता और वेदिका यह छः प्रकार की प्रतिलेखना वर्जनी चाहिए।
टीका-इस गाथा में प्रतिलेखना के छः दोष कथन किए गए हैं। यथा
पहली आरभटा-सूत्र से विपरीत प्रतिलेखना करना, तथा शीघ्र-शीघ्र करना और वस्त्रों को इधर-उधर से देख कर रख देना। .
दूसरी संमर्दा-वस्त्रं को एक कोने से पकड़कर उसके दूसरे कोने से मसलना और उपधि पर बैठना, इसको संमर्दा कहते हैं।
तीसरी मोसली-तिर्यग्, ऊर्ध्व और नीचे वस्त्र का स्पर्श होते रहना, अर्थात् भित्ति आदि से वस्त्र का टकरांना यह मोसली कहलाती है।
चौथी प्रस्फोटना है-जोकि बिना यत्न के वस्त्र को झाड़ना है।
पांचवीं विक्षिप्ता है-जो कि प्रतिलेखना किए हुए और बिना प्रतिलेखना के वस्त्रों को इकट्ठा करके रख देना अथवा वस्त्रों को इधर-उधर फैला कर रख देना है।
छठी वेदिका-रूप प्रतिलेखना है, वह भी प्रमाद-रूप होने से त्याज्य है।
वेदिका के पांच भेद हैं, यथा, प्रथम-ऊर्ध्ववेदिका, द्वितीय-अधोवेदिका, तृतीय-तिर्यग्वेदिका, चतुर्थ-उभयवेदिका और पंचम-एक वेदिका। __ पहली ऊर्ध्ववेदिका-प्रतिलेखना करते समय पंजों के बल बैठकर जब जानु ऊंचे किए जाएं और यदि दोनों हाथ दोनों जानुओं पर रखकर प्रतिलेखना की जाए तो उसको ऊर्ध्ववेदिका कहते हैं।
दूसरी अधोवेदिका-उसका नाम है जो दोनों जानुओं के नीचे हाथ रखकर प्रतिलेखना की जाए।
तीसरी तिर्यग्वेदिका-उसे कहते हैं जो कि सदंशकों के मध्य में दोनों हाथ रखकर प्रतिलेखना की जाए।
चौथी उभयवेदिका-उसका नाम है, जो कि दोनों भुजाओं को जानुओं से बाहर रख कर प्रतिलेखना की जाए। ___पांचवीं एक वेदिका-प्रतिलेखना उसे कहते हैं, जो कि दोनों जानु दोनों हाथों के मध्य में
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [३९] सामायारी छव्वीसइमं अज्झयणं