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मूत्रकृताग की मूक्तिया
तेतीस
२१ मनुष्यो का जीवन एक बहुत ही अल्प एव मान्त जीवन है ।
२२ मुमुक्षु तपस्वी अपने कृत कर्मों का वहुत गीघ्र ही अपनयन कर देता है,
जैसे कि पक्षी अपने परो को फडफडाकर उन पर लगी धूल को झाड देता है।
२३ इन्द्रियो के दाम अनवृत मनुप्य हिताहित निर्णय के क्षणो मे मोह
मुग्ध हो जाते हैं। २४ दूसरो की निन्दा हितकर नहीं है ।
२५ जिम प्रकार सर्प अपनी कचुनी को छोड़ देता है, उसी प्रकार सावक
अपने कमों के आवरण को उतार फेंकता है। २६ जो दूसरो का परिभव अर्थात् तिरस्कार करता है, वह ससार वन मे
दीर्घ काल तक भटकता रहता है। २७ साधक के लिए वदन और पूजन एक बहुत बडी दलदल है ।
२८ मन मे रहे हुए विकारो के दम शल्य को निकालना कभी-कभी बहुत
कठिन हो जाता है। २६ समभाव उसी को रह सकता है, जो अपने को हर किसी भय से मुक्त
रखता है।
३० बुद्धिमान को कभी किसी से कलह-झगडा नही करना चाहिए । कलह ने
बहुत बडी हानि होती है। ३१. अज्ञानी आत्मा पाप करके भी उस पर अहकार करता है ।