Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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वर्गणाखंड-विचार समस्त प्रकरण व शंका-समाधानक्रम ठीक बैठ जाता है। उससे उक्त दो अवतरणोंके बीचमें आये हुए उन शंका समाधानोंका अर्थ भी सुलझ जाता है जिनका पूर्वकथित अर्थसे बिलकुल ही सामञ्जस्य नहीं बैठता बल्कि विरोध उत्पन्न होता है। वह पूरा प्रकरण इस प्रकार है
उरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? तिण्णं खंडाणं । कुदो? वग्गणा-महाबंधाणमादीए मंगलाकरणादो। ण च मंगलेण विणा भूतबलिभडारओ गंथस्त पारभदि, तस्स अणाइरियत्तपसंगादो । कधं वेयणाए आदीए उत्तं मंगल सेस दो-खंडाणं होदि? ण, कदीए आदिम्हि उत्तस्स एदस्लेव मंगलस्स सेसतेवीस अणियोगद्दारसु पउत्तिदंसणादो। महाकम्मपडिपाहुडत्तणेण चउवीसहमणियोगद्दाराणं भेदाभावादो एगत्तं, तदो एगस्स एवं मंगलं तत्थ ण विरुदे। ण च एदेसिं तिहं खंडाणमेयत्तमेगखंडत्तपसंगादो त्ति, ण एस दोसो, महाकम्मपयडिपाहुडत्तणेण एदेसि पि एगत्तदंसगादो । कदि-पास-कम्म-पयडि-अणियोगद्दाराणि विएत्थ परूविदाणि, तेसिं खंडग्गंथसण्णमकाऊण तिणि चेव खंडाणित्ति किमढे उच्चदे ? ण, तेसिं पहाणत्ताभावादो। तं पि कुदो गधदे ? संखेवेग परूवणादो ।
इसका अनुवाद इस प्रकार होगा
शंका-आगे कहे जाने वाले तीन खंडों ( वेदना वर्गणा और महाबंध) में से किस खंड का यह मंगलाचरण है ?
समाधान- तीनों खंडोंका। शंका- कैसे जाना ?
समाधान- वर्गणाखंड और महाबंध खंडके आदिमें मंगल न किये जानेसे । मंगलकिये विना तो भूतबलि भट्टारक ग्रंथका प्रारंभ ही नहीं करते क्योंकि इससे अनाचार्यत्वका प्रसंग आ जाता है।
शंका-वेदनाके आदिमें कहा गया मंगल शेष दो खंडोंका भी कैसे हो जाता है ?
समाधान-क्योंकि कृतिके आदिमें किये गये इस मंगलकी शेष तेवीस अनुयोगद्वारोंमें भी प्रवृत्ति देखी जाती है।
शंका- महाकर्मप्रकृतिपाहुडत्वकी अपेक्षासे चौबीसों अनुयोगद्वारोंमें भेद न होनेसे उनमें एकत्व है, इसलिये एकका यह मंगल शेष तेवीसोंमें विरोधको प्राप्त नहीं होता। परंतु इन तीनों खंडोंमें तो एकत्व है नहीं, क्योंकि तीनोंमें एकत्व मान लेनेपर तीनोंके एक खंडत्वका प्रसंग आजाता है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि-महाकर्मप्रकृतिपाहुडत्वकी अपेक्षासे इनमें भी एकत्व देखा जाता है।
शंका-कृति, स्पर्श, कर्म और प्रकृति अनुयोगद्वार भी यहां (ग्रंथके इस भागमें) प्ररूपित किये गये हैं, उनकी भी खंड ग्रंथ संज्ञा न करके तीन ही खंड क्यों कहे जाते हैं ?
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