Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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वर्गणाखंड-विचार इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि आचार्य भूतबलिकी रचना यहीं तक है। किन्तु उक्त प्रतिज्ञा वाक्यके अनुसार शेष निबन्धनादि अठारह आधिकारोंका वर्णन धवलाकारने स्वयं किया है और अपनी इस रचनाको उन्होंने चूलिका कहा है
एत्तो उवरिमगंथो चूलिया णाम । इन्हीं अठारह अनुयोगद्वारोंकी वीरसेनद्वारा रचनाका विशद इतिहास इन्द्रनन्दिने अपने श्रुतावतारमें दिया है * । इसी चूलिका विभागको उन्होंने छठवां खंड भी कहा है। इसप्रकार चौवीसों अनुयोगद्वारोंके कथनके साथ ग्रंथ अपने स्वाभाविक रूपसे समाप्त होता है । अब यदि इन्हीं अनुयोगद्वारोंके भीतर वर्गणाखंड नहीं माना जाता तो उसके लिये कौनसा विषय व अधिकार शेष रहा और वह कहांसे छूट गया होगा ? लेखकद्वारा उसके छोड़ दिये जानेकी आशंकाको तो इस रचनामें बिलकुल ही गुंजाइश नहीं रही।
वेदनाखंडके आदि अवतरणोंका ठीक अर्थ वेदनाखंडके आदि मंगलाचरणकी व्यवस्था संबंधी सूचनाका जो अर्थ लगाया जाता है और उससे जो गड़बड़ी उत्पन्न होती है उसका हम ऊपर परिचय करा चुके हैं। अब हमें यह देखना आवश्यक है कि उक्त भूलोंका क्या कारण है और उन अवतरणोंका ठीक अर्थ क्या है। ' उवरि उच्चमाणेसु तिसु खंडेसु' का अर्थ 'ऊपर कहे हुए तीन खंड' तो हो ही नहीं सकता। पर ऐसा अर्थ किये जानेके दो कारण मालूम होते हैं। प्रथम तो ' उवरि ' से सामान्य ऊपर अर्थात् पूर्वोक्त का अर्थ ले लिया गया है और दूसरे उसकी आवश्यकता भी यों प्रतीत हुई क्योंकि आगे वर्गणा और महाबंधों अलग मंगल करनेका उल्लेख पाया जाता है। पर खोन और विचारसे देखा जाता है कि ' उवरि' शब्दका धवळाकारने पूर्वोक्तके अर्थमें कहीं उपयोग नहीं किया । उन्होंने उस शब्दका प्रयोग सर्वत्र ‘आगे' के अर्थमें किया है और पूर्वोक्तके लिये 'पुन्व' या पुवुत्त का । उदाहरणार्थ, संतपरूवणा, पृष्ठ १३० पर उन्होंने कहा है
संपहि पुव्वं उत्त-पयाडिसमुक्तित्तणा ............एदण्हं पंचण्हमुवरि संपहि पुव्वुत्त-जहण्णहिदि ........''च पक्खित्ते चूलियाए णव अहियारा भवंति ।
अर्थात् पूर्वोक्त प्रकृति समुत्कीर्तनादि पांचोंके ऊपर अभी कहे गये जघन्यस्थिति आदि जोड़ देनेपर चूलिकाके नौ अधिकार हो जाते हैं। यहां ऊपर कहे जा चुकेके लिये 'पुव्वं उत्त' व 'पुव्वुत्त' शब्द प्रयुक्त हुए हैं और — उवरि ' से आगेका तात्पर्य है।
पृ. ७३ पर ' उवरि' से बने हुए उवरीदो (उपरितः) अव्ययका प्रयोग देखिये । आचार्य कहते हैं
* सं. प. भू.पू. ३८,६७,
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