Book Title: Shatkhandagama Pustak 02
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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वर्गणाखंड - विचार
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जयधवल ग्रंथ उनके साम्हने मौजूद ही नहीं थे । उन्होंने ऐसी कोई बात नहीं लिखी जिसकी इन ग्रंथोंकी वार्तासे इतनी विषमता हो जो पढ़कर पछि स्मृतिके सहारे लिखनेवाले द्वारा न की जा सकती हो। इसके अतिरिक्त उनका ग्रंथ अभीतक प्राचीन प्रतियोंपर से सुसंपादित भी नहीं हुआ है । किसी एकाध प्रतिपरसे कभी छाप दिया गया था, उसीकी कापी हमारे साम्हने प्रस्तुत है । उन्होंने जो वार्ता किवदन्तियों व सुने सुनाये आधारपर से लिखी हो वह भी उन्होंने बहुत सुव्यवस्थित करके, भरसक जांच पड़तालके पश्चात्, लिखी है और इसीतरह वे बहुतसी ऐसी बातोंपर प्रकाश डाल सके जो धवलादिमें भी व्यवस्थित नहीं पायी जाती, जैसे धवलासे पूर्वकी टीकायें व टीकाकार आदि । वे कैसे प्रामाणिक और निर्भीक तथा अपनी कमजोरियों को स्वीकार करलेनेवाले निष्पक्ष ऐतिहासिक थे यह उनके उस वाक्य परसे सहज ही जोना जा सकता है जहां उन्होंने साफ साफ कह दिया है कि गुणधर और धरसेन गुरुओंकी पूर्वापर आचार्य परम्परा हम नहीं जानते क्योंकि न तो हमें वह बात बतलानेवाला कोई आगम मिला और न कोई मुनिजन x कितनी स्पष्टवादिता, साहित्यिक सचाई और नैतिकबल इस अज्ञानकी स्वीकारतामें भरी हुई हैं ? क्या इन वाक्योंको लिखनेवालेकी प्रामाणिकतामें सहज ही अविश्वास किया जा सकता है ?
६. मूडविद्री प्रतिलिपि करनेवाले लेखककी प्रामाणिकता
जिस परिस्थितिमें और जिस प्रकारसे घबला और जयघवलाकी प्रतियां मूडबिद्री से बाहर निकली हैं उसका हम प्रथम जिल्दकी भूमिकामें विवरण दे आये हैं । उस परसे उपलब्ध प्रतियोकी प्रामाणिकतामें नाना प्रकारके सन्देह करना स्वाभाविक है । अतएव जो धवलाके भीतर वर्गणाखंडका होना नहीं मानते उन्हें यह भी कहनेको मिल जाता है कि यदि मूल धवलामें वर्गणाखंड रहा भी हो तो उक्त लिपिकारने उसे अपना परिश्रम बचानेके लिये जानबूझकर छोड़ दिया होगा और अन्तिम प्रशस्ति आदि जोड़कर अपने ग्रंथको पूरा प्रकट कर दिया होगा ताकि उसके पुरस्कारादिमें फरक न पड़े । इस कल्पनाकी सचाई झुठाई का पूरा निर्णय तो तभी हो सकता है जब यह ग्रंथ ताडपत्रीय प्रतिसे मिलाया जा सके । पर उसके अभाव में भी हम इसकी संभावना की जांच दो प्रकारसे कर सकते हैं । एक तो उस लेखक के कार्यकी परीक्षा द्वारा और दूसरे विद्यमान धवलाकी रचना की परीक्षा द्वारा । धवलाके संशोधन संपादन संबंधी कार्यमें हमें इस बातका बहुत कुछ परिचय मिला है कि उक्त लेखकने अपना कार्य कहांतक ईमानदारी से किया है । हमें जो प्रतियां उपलब्ध हुई हैं वे मूडविद्रीसे आई हुई कनाड़ी प्रतिलिपिकी नागरी प्रतिकी कापी की भी कापियां हैं । वे बहुत कुछ स्खलन - प्रचुर और अनेक प्रकारसे दोष पूर्ण हैं ।
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x संतपरूवणा, जिल्द १, भूमिका पृ. १५
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