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संशयतिमिरप्रदीप।
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(५) तुव यशलता सुहावनी भविजन मन अभिराम । कुमतितापसन्तप्त पर करहु छाय सुख धाम ॥
कलिघनपङ्कनिमग्रजन तिनहिं निकाशन शूर । प्रभु तुव चरण सरोज विन नहिं समरथ बलपूर ॥
चिर उपचित अघविधि विवश आवहिं विघन प्रचण्ड । है कृपालु शिशु "उदय” पर ईश करहु शतखंड ।
तुम प्रभाव इह अल्प अति पुस्तक लिखु जन हेतु । सो दुलंघ भवजलधि महिं बनो सुदृढ़ सुख सेतु ॥
महर्षियों का उद्देश ।
यदि कहा जाय कि गृहस्थों के लिये प्राचार्यों का जितना उद्देश है वह प्रायः अशुभकार्यों की ओर से परिणामों को हटा कर जहां तक होसके शुभ कार्यों की ओर लगाने का है। ऐसा कहना किसी प्रकार अनुचित न होगा। इस बात को सब कोई जानते हैं कि गृहस्थों को दिन रात अपने संसा. रोक कामों में फंसा रहना पड़ता है। उन्हें अपने किये हुये पाप
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