Book Title: Sanshay Timir Pradip
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Swantroday Karyalay

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Page 184
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संसयतिमिरप्रदीप। १६५ हैं । जो लोग निषेध करते हैं उनकी कल्पना ठीक नहीं है। और भी दो चार शास्त्रों के प्रमाणों को इस विषय में देकर लेख समाप्त करता हूं। मानने वालों के लिये तो दिग्दर्शनमात्र उपयोगी होता है और न मानने वालों के लिये चाहे सिद्धान्त भी खोलकर क्यों न रख दिये जाँय तो भी वे वैसे के वैसे ही धरे रहेंगे । परन्तु यह बात जिनाज्ञा के मानने वालो के लिये उचित नहीं हैं। हम किसी जगहँ यह लिख आये है कि कुदेवों के विषय में आगे चल कर लिखेंगे। इसलिये सारचतुवंशतिका के आधार पर कुदेवों का स्वरूप लिखते हैं। शासनदेवता और इनके स्वरूप मे जो भेद है वह ठीक २ निश्चित हो जायगा। सारचतुर्विशतिका के सम्यक्त्व प्रकरण में यों लिखा है यक्षः कुचण्डिका सूर्यो ब्रह्मा विष्णुविनायकः । क्षेत्रपालः शिवो नागो वृक्षाश्चपिप्पलादयः ।। गोवायसादितिर्यचो ह्याचाम्लभोजनादयः । यत्राऽच्यन्ते शठैरेते देवमूढः स उच्यते ॥ देवत्वगुणहीनास्ते निग्रहाऽनुग्रहादेकम् । पुसां कर्तुं क्षमा नैव जातु संस्थापिताः शरैः ॥ अर्थात्-यक्ष, चण्डिका, सूर्य, ब्रह्मा, विष्णु, विनायक, क्षेत्रपाल, शिव, सर्प, पिप्पलादिक वृक्ष, गौ,काक, इत्या दिकों को जो लोग पूजत हैं उसे देवता मूढ कहना चाहिये जब ये स्वयं यथार्थ देवत्व गुण से हीन है फिर दूसरों के निग्रहादि करने को कैसे समर्थ कहे जा सकते हैं। For Private And Personal Use Only

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