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संशयतिमिरप्रदीप।
किया जाता है। इसी तरह अपने से बड़े, मित्र, बन्धु, मुनि, श्रावक आदि का उनके योग्य सत्कार करना उचित है । इसेही सत्कार कहो, विनय कहो, अथवा पूजन कहो, ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। इसी तरह जिन भगवान् तथा शासनदेवताओं का सत्कर भी यथायोग्य उचित है । इस से यह तो नहीं कहा जासकता कि शासनदेवता सत्कार के ही योग्य नहीं है । हाँ यह बात तब उचित कही जाती जब शासनदेवता और जिनभगवान् की पूजन का विधान समान कर देते और उसी समय यह भी कहना ठीक हो सकता था कि "शासनदेवताओं के ऊपर भक्ति का संचार नहीं होता" हमारा यह कहना तो नहीं है कि तुम जिनदेव की समान शासनदेवताओं की भी भक्ति पूजनादि करो
और न शास्त्रों का ही यह मत हे क्याकियशस्तिलक में भगवत्सोमदेव यों लिखते हैं
देवं जगत्रयीनेत्रं व्यन्तराद्याश्च देवताः। समं पूजाविधानेषु पश्यन्दुग्यधः व्रजेत् ॥ ताः शासनाधिरक्षार्थ कल्पिताः परमागमे । यतो यज्ञांशदानेन माननीयाः शुदृष्टिभिः ।। अर्थात् जो पूजनादि विधि में तीन जगत के नेत्र जिनदेव को तथा व्यन्तरादि देवताओं को एकदृष्टि से देखते है अर्थात् जिनदेव और शासनदेवताओं में कुछ भी भेद नहीं समझते हैं उन्हें नरकगामी समझा चाहिये । जिनागम में शासनदेवता केवल जिनशासन की रक्षा
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