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संशयतिमिरप्रदीप। १५७ संयम धारण किया है तो क्या वे सत्कारादि के पात्र नहीं कहे जा सकते ? यह केवल भ्रम है। भयाशास्नेहेत्यादि श्लोक का अर्थ तुम्हारे कथनानुसार ही करके यह मान लिया जावे कि सम्यग्दृष्टि पुरुषों के लिये लिये शासनदेवता वगैरह सब के पिनयादि करने का निषेध है तो फिर परस्पर शास्त्रों के विरोधों को कोन दूर सकेगा? आदि पुराण में भगवजिनसेनाचार्य यो लिखते हैं:विश्वेश्वरादयो शेया देवताः शान्तिहेतवे । क्रूरास्तु देवता हेया यासां स्यादत्तिरामिषः ॥ अर्थात् विश्वेश्वरादि शासन देवता शान्ति के लिये मानने योग्य है और जो मांस का भोजन करने वाले कर देवता हैं वे त्यागने योग्य हैं। इस से यह स्पष्ट होता है कि शासनदेवताओं को मानने में किसी तरह का हानि नहीं है। विचारना चाहिये कि समन्तभद्रस्वामि का कुदेवादिको के निषेध में क्या तात्पर्य है यदि तुम्हारे अनुसार अर्थ करें तो समन्तभद्र तथा जिनसे न स्वामि के बचनों में परस्पर विरोध आधमकता है। इसलिये तुम्हारा कहना ठीक नहीं है क्योंकि आचार्यो के बचनों में विरोध कभी नहीं आसकता किन्तु हमारी समझ का विरोध है। इसलिये रत्नकरंड के श्लोक का अर्थ कुदेवादिकों के सम्बन्ध में अन्यमतीदको के कल्पना किये हुवे देवादिकों का निषेध समझना चाहिये शासनदेवताओं के निषेध का अर्थ करना मिथ्या है।
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