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संशयतिमिरप्रदोष |
प्रश्न - आदि पुराण के श्लोक का जैसा अर्थ किया है वह ठीक नहीं है यह तो उल्टा अर्थ है । इसी से हमारा कहना बहुत ठीक है कि भयाशास्नेहलोभाच इत्यादि श्लोक का तात्पर्य जिनदेव को छोड़ कर सबको निषेध करता है । उस श्लोक का असली अर्थ यह है- विश्वेश्वर तीर्थ कर भगवान् को कहते हैं और आदि शब्द से आचार्य उपाध्याय साधु का ग्रहण है। तात्पर्य यह हुआ कि पञ्चपरमेष्टी शान्ति के लिये हैं और शेष कुदेव असेवनीय
। यही अर्थ किसी विद्वान् ने भी अपने ग्रन्थ में किया है। कदाचित् कहो कि इस में क्या प्रमाण है कि विश्वेश्वर नाम तीर्थंकर भगवान् का है तो इसके उत्तर में इतना कहनाही ठीक कहा जा सकेगा कि जिस तरह त्रिभुवन स्वामी, त्रैलोक्यनाथ, आदि शब्द से जिनदेव का स्पष्ट बोध होता है उसी तरह विश्वेश्वर शब्द से तीर्थंकर भगवान का क्यों नहीं हो सकेगा? यह निस्सन्देह बात है । उत्तर - यह नई कल्पना आज ही कर्ण विवर तर्क पहुँची है ।
पहले कभी इसका श्रवण प्रत्यक्ष नहीं हुआ था । खैर जरा समालोचना के भी योग्य है । जो अर्थ शास्त्रों से मिलता हुआ किया गया है वह तो झूटा बताया गया और जो वास्तव में झूठा और जैनशास्त्रों से बाधित है वह आज सत्य माना जा रहा है। क्या कोई परीक्षक नहीं है जो सत्य और झूठ को अलग करके बता दे । ठीक तो है जहाँ शास्त्रों को ही प्रमाणता नहीं है उस जगह विचारा परीक्षक भी क्या कर सकेगा ? तो भी पाठकों का ध्यान जरा इधर दिलाते हैं।
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