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संशयतिमिरप्रदीप। १५५ तो वैसी नहीं है हमतो दिन रात छोटे से छोटे मनुष्यों के चरणों में अपने सिर को रगडते फिरते हैं फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि उसकी तरह हम भी अटल चल सकेंगे दूसरे राजा वज्रकर्ण ने कुदेवादिको को नमस्कारादि नहीं करने की प्रतिज्ञा ली थी। अस्तु, शासनदेवता तो कुदेव नहीं हैं। यदि थोड़ी देर के लिये मान भी लिया जाय कि शासन देवताओं के विषय की ही वह प्रतिक्षा थी तो क्या इससे यह कहा जा सकता है कि वह समदृष्टि पुरुषों को नमस्कारादि नहीं करता ? अथवा उसे किसी समय जिन मन्दिरादि बनवाने का अवसर आया होगा तो उसने शासन देवता तथा और प्रतिष्ठादि महोत्सव में भाये हुवे शुद्धदृष्टि पुरुषों का यथा योग्य सत्कारादि नहीं किया होगा यह संभव माना जा सकता है ? नहीं। यह बात तो तब ठीक मानी जाती जब प्रतिष्ठादि कार्य शासन देवतामो विना भी चल सकते होते सो कहीं प्रतिष्ठादि विधियों में देखा नहीं जाता। क्या चक्रपार्त सम्यग्दृष्टि नहीं होते क्यों उन्हें चक्ररत्न की पूजनादि करना पड़ता है ? विद्यादिको के साधन में क्यों देवताओं का आराधन किया जाता है ? क्या वे सब जैन धर्म के पालन करने वाले विद्याधर लोग मिथ्यादृष्टि ही होते थे ? जैनमत में नव देवता पूजने लिखे हैं उन में जिन मन्दिर भी गर्भित है। क्योंजिन मन्दिर तो पत्थर
और चूनों का ढेर है न ? उसके पूजने से क्या फल होगा उसी तरह समवशरण तथा सिद्धक्षेत्रादिकों का भी पूजन
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