Book Title: Sanshay Timir Pradip
Author(s): Udaylal Kasliwal
Publisher: Swantroday Karyalay

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Page 168
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir संशयतिमिरप्रदीप | १४० अर्थात् - किसी तरह के भय से, आशा की पराधीनता से, अनुराग से तथा किसी प्रकार के लोभ से कुदेव, कुगुरु और मिथ्याशास्त्रों का विनय तथा उन्हें नमस्कारादि सम्यग्दृष्टि पुरुषों को कभी नहीं करना चाहिये । तात्पर्य यह कहा जा सकता है कि जिनदेबादिकों को छोड़ कर और कोई विनय तथा नमस्कार के योग्य नहीं है । जब इस तरह शास्त्राशा है फिर ऐसा कौन बुद्धिमान होगा जो जानता हुआ भी अनुचित्कार्य में अपना हाथ पसारेगा । कदाचित् कहो कि शासन देवता जिनमार्ग के रक्षक हैं इसलिये उनका नमस्कारादि से सत्कार करने में किसी तरह की हानि नहीं है । यह भी केवल बुद्धि का भ्रम है । इस संसार में यह जीव अपनेही कर्मों से सुख तथा दुःखादि कों का उपभोग करता है । आजतक इस अतिगहन संसाराटवी में भ्रमण करते हुवे जीवात्मा की न तो किसी ने सहायता की और न कोई कर सकता है। ये तो रहें किन्तु जिनदेव तक जीवों के कृतकर्मों को परिवर्तित करने में शक्ति विहीन है फिर और को कितनी शक्ति है यह शीघ्र अनुभव में आसकता है। इसी अर्थ को दृढ़ करते हुवे महाराज कार्तिकेय ने भी अनुप्रेक्षा में लिखा है कि जर देवो विय रक्खड़ मंतो ततो य खेत्तपालो य । मियमाणं पि मणुस्सं तो मणुया अक्खया होति || अर्थात् - यदि मरते हुवे मनुष्यों की, देव, मंत्र, तत्र, क्षेत्रपालादि देवता रक्षा करने में समर्थ होते तो आज यह संसार अक्षय हो जाता परन्तु यह कब संभव हो सकता है I तथा और भी कहते हैं कि एवं पेच्छतो विं हु गह भूयपिसाय योगिनी यक्खं । सरणं मरणइ मूढो सुगाढमिच्छत्त भावादो || For Private And Personal Use Only

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