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संसयति मिरप्रदीप ।
___ अर्थात्-- इस तरह सारे संसार को शरणरहित देखता हुआ भी यह मूर्ख आत्मा ग्रह भूत, पिशाच, यक्षादि देवताओं को शरण कल्पना करता है । इसे हम गाढ मिथ्यात्व को छोड़ कर और क्या कह सकते हैं। इससे यह तो निश्चय होही गया कि इस संसार में न कोई सुख का देने वाला है और न कोई दुःख का। यदि है तो वह केवल अपना अर्जित शुभाशुभ कर्म फिर व्यर्थ ही यह कहना कि अमुक की सहायता जिनशासन देवताओं ने की थी। अरे! जब दैव अनुकूल होता है तो वेही देवी देवता सेवा करने लगते हैं और प्रतिकूल होने से उल्टे विपत्ति के कारण बन जाते हैं। इसलिये यदि जगत में कोई सेवनीय है तो जिनदेव ही है उन्हें छोड़ कर.सर्व कल्पना मिथ्यात्व है। इसी आशय को लिये भगवान्समन्तभद्रस्वामि ने उक्त श्लोक लिखा है इत्यादि।
इस तरह शासनदेवताओं का अनादर किया जाता है यह कहना कहाँ तक ठीक है इस पर कुछ विचार करना है । वह विचार हमारा नहीं है किन्तु शास्त्रों का है इसलिये पाठक महोदय जरा अपने ध्यान को सावधान करके विचार करें।
भगवान्समन्तभद्र का कुदेवादिकों के सम्बन्ध में जिस तरह कहना है वह बहुत ठीक है। उसके बाधित ठहराने की किसमें सामर्थ्य है । परन्तु उसके समझने के लिये हमारे में शक्ति नहीं है इसी से उल्टे अर्थ का आश्रय लेना पड़ता है । कुवे किसे कहनाचाहिये पहले यह बात समझने के योग्य है। जब कुदेवादिको का ठीक बोध हो जायगा तो सुतरां प्रकृत विषय हदय में स्थान पालेगा। शास्त्रों में कुदेवों के विषय में क्या लिखा हुआ है । इसे हम आगे चल कर लिखेंगे। क्योंकि इस विषय में
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