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संशयतिमिरप्रदीप।
को कुछ देते लेते नहीं है। तो फिर क्या उनकी उपासना छोड़ देना चाहिये ? कार्तिकेयस्वामि का जो कहना है वह प्रायः निश्चयत्व की अपेक्षा से है परन्तु व्यवहार में उसकी जरा गौणता कहनी पड़ेगी। यह लिखा हुआ है कि जिन भगवान् किसी का बुरा भला करने को समर्थ नहीं है परन्तु साथ ही यह भी लिखा हुआ मिलता है कि अनिष्टदुःखादिको की शान्ति के लिये जिन भगवान् की पूजनादि करनी चाहिये । केवल करनी ही चाहिये यह नहीं किन्तु आदिपुराण में यह लिखा हुआ है कि जिस समय भरतचक्रवर्ति को खोटे स्वप्न आये थे उस समय भगवान् के उपदेशानुसार उन स्वप्नों की शान्ति के लिये पूजनादि वगैरह उन्होंने किये थे । इसके अतिरिक्त
और भी हजारों कथाये हैं। कथाये रहे ! किन्तु यह बात तो दिन रात हमें भी करनी पड़ती है तो क्या इस से यह कहा जा सकता है कि जिन भगवान् तो कुछ भला बुरा नहीं कर सकते फिर उनकी पूजनादि से लाभ नहीं होगा ? कभी नहीं ! इसी तरह शाशन देवताओं के विषय में भी क्यों न समझा जाय ? इसे देवता मूढ भी नहीं कह सकते क्योंकि समन्तभद्रस्वामि ने रत्नकरंडउपासकाध्ययन में देव मूढ़ता का यो वर्णन किया है
वरोप्लिप्सयाशावान् रागद्वेषमलीमसाः । देवता यदुपासीत देवतामूढमुच्यते ॥ अर्थात्-किसी प्रकार के इह लोक सम्बन्धी ऐश्वर्यादिकों की इच्छा से रागद्वेषादि युक्त देवताओं की उपासना करने को देव मूढता कहते हैं । इसलिये शासन देवताओं के सत्कारादिको में किसी तरह की ऐहिक वांछा नहीं होनी चाहिये।
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