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संशति मिरप्रदीप ।
तथा यशस्तिलक में भी पूजक पुरुष के लिये दिशा विदिशाओं का विचार है:
उदगुखं स्वयं तिष्ठत्लाङ्मुखं स्थापयेजिनम् । पूजाक्षणे भवेन्नित्यंयमी वाचंयपक्रियः ।। अर्थात्-पूजन करने वाले को उत्तर मुख बैठ कर जिन भगवान् को पूर्वमुख विराजमान करना चाहिये। पूजन के समय पूजकपुरुष को सदैव मौन युक्त रहकर पूजन करनी चाहिये । कदाचित् कोई शंका करे कि पूजक पुरुष मौनी होकर कैसे पूजन कर सकैगा क्योंकि पूजन विधान तो उसे बोलना ही पड़ेगा । यह कहना ठीक है परन्तु उसका यह तात्पर्य नहीं है कि उसे मौन रह कर पूजन वगेरा भी नहीं बोलनी चाहिये। किन्तु उस श्लोक का असली यह अभिप्राय है कि पूजनसमय में भन्यलोगों से वार्तालाप का सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये। इसी तरह अन्यधर्म ग्रन्थों की भी आया है। ___ सम्मुख पूजन करने से और तो जो कुछ हानि होती है वह तो ठीक ही है परन्तु सब से बड़ी भारी तो यह हानि होती है कि जिस समय पूजक पुरुष भगवान के सम्मुख “ शुष्को वृक्ष स्तिष्ठत्यप्रे" की कहावत को चरितार्थ करते हैं । उस वक्त विचारे दर्शन स्तनन और वन्दनादि करने वालों की कितनी बुरी हालत होती है यह उसे ही पूछिये जिसे यह प्रसंग आपड़ा है। और कहीं कहीं तो यहां तक देखने में आया है कि जब पूजक दश पांच होते हैं तब तो विचारों को भगवान के श्रीमुख के दर्शन तक दुष्वार हो जाते हैं। इतनी प्रत्यक्ष हानियों को देखते हुवे भी हमारे भाई उन पुरुषों को इतनी बुरी दृष्टि से देखते हैं जो जरासा भी यह कहे कि इस प्रकार पूजन करना आप का अनुचित है
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